राम एवं रघुकुल की आर्ष परम्परा
राम एवं रघुकुल की आर्ष परम्परा
लेखक – ललित मिश्र, संस्थापक एवं अध्यक्ष, इंडोलोजी फ़ाउंडेशन
दिनांक: 05 जून 2022

परम्पराओं का अध्ययन एवं जिज्ञासु मन की सृष्टि
परम्परायें जीवंत नदियों की तरह होती हैं, इन परंपराओ के आलोक में ही ‘राघव-राम’ जैसे महान चरित्रो के व्यक्तित्व गठन से हमारा वास्तविक परिचय हो पाता है, तथा हम यह समझ पाते हैं कि जिस युग में ब्रह्म को मनुष्य के रूप में अवतरित होन पडा, वह युग वास्तव में कैसा था । अधिकांशतः राम के जीवन का अध्ययन उन्हे भगवान मान कर किया जाता है परिणामतः उनकी व्यक्तिगत अभिरुचियां, आनंद, शोक, संघर्ष एवं चुनौतियां ‘प्रभु की लीला’ बन कर दृष्टि से ओझल हो जाती हैं। जबकि राम का सूक्ष्म मानवीय अध्ययन करने पर अध्येता राम के जीवन के उन अज्ञात पहलुओ को इस तरह खोज निकालता है कि मानो ‘राम का जीवन’ कल की ही घटना हो और कल तक राम शायद अपने बीच ही रहे हों ।
राम-जानकी के मानवीय पक्ष
सूक्ष्म दृष्टि से किया गया अध्ययन राम द्वारा किये गये ‘धनुष-भंग’ की महिमा के साथ-साथ यह भी दिखा जाता है कि तोडा गया भारी-भरकम धनुष एक पेटी में रखा रहता था जिसमे आठ-आठ चक्के लगे हुये थे (‘मञ्जूषामष्टचक्रां’), इस पेटी को हाथ से खींचा जाता था अर्थात आज की माडर्न ट्राली की तरह । दंडकारण्य गमन के पूर्व जानकी का राम के साथ चलने का आग्रह एवं यदि राम उन्हे साथ नहीं ले जाते हैं तो विष पी लेने की धमकी (‘विषमद्दैव पास्यामि”) देना यह सभी बातें ‘लीला’ मात्र नहीं हैं, इनमें मानवीय पीडा भरी हुई है। इसी प्रकार मेघनाद के बाणों के आघात से घायल लक्ष्मण को मूर्क्षित देखकर राम का गहरी वेदना एवं पश्चाताप में डूब कर, उसी मनःस्थिति में सुग्रीव को तत्काल सेना सहित युद्ध छोड सुरक्षित वापस लौट जाने की आज्ञा दे देना तभी समझा जा सकता है जब राम को मनुष्य के रूप में देखा जाये ।
इसी तरह सीता के केशों की उस वेणी को जो महीनों तक खुल न पाने के कारण जटा बन गयी थी, उसे हम ‘लीला’ मानकर असंवेदनशील हो जायें तो राम का रास्ता देखती, शोक में तप रही सीता की गहरी उदासी को हम कैसे अनुभव करेंगे, क्या सीता एवं राम के इन मानवीय पक्षो के प्रति हम उचित न्याय कर पायेंगे । ऐसे सूक्ष्म अध्ययन द्वारा चेतना की नैसर्गिक समीपता निःप्रयास प्राप्त होती है, जो स्थाई होती है, जबकि भक्ति से मिलने वाली समीपता स्थाइत्व हेतु नित्य अभ्यास की अपेक्षा रखती है, अभ्यास कम हुआ तो भक्ति की धारा सूखने लगती है, अतः अध्ययन ऐसा हो हमारी चेतना की गहराईयों में उतर कर बैठ जाये I
परम्पराओं को न किसी एक स्रोत से समझा जा सकता है और न ही एकांगीय दृष्टि से, परम्पराएँ बहुआयामी सूक्ष्म अध्ययन की मांग करती हैं । रघुकुल की परम्पराओं एवं मूल्यो को समझने हेतु वाल्मीकि की रामायण के अतिरिक्त महाभारत एवं पुराणों के साथ कालिदास का रघुवंश, भवभूति का उत्तर-रामचरित, वाकाटक नरेश प्रवरसेन का सेतुबंध अत्यंत उपयोगी स्रोत हैंI
‘ताम्राक्ष’ राम का व्यक्तित्व
नटराज शिव एवं नटनागर कृष्ण के आकर्षक रुप की चर्चा बहुत हुई है किंतु राम के मनोरम व्यक्तित्व को उतना उकेरा नहीं गया है, युवक राम के राज्याभिषेक के अवसर पर अयोध्याकांड में वाल्मीकि लिखते हैं कि श्याम वर्ण के राम कमल जैसी सुंदर आंखो वाले ‘राजीव-लोचन’ थे, जिनके बाहु उत्तम योद्धाओं की तरह दीर्घाकार थे, किंतु एक और विशिष्ट बात जो वाल्मीकि ने लिखी वह यह है कि राजीवलोचन होते हुये भी राम ‘ताम्राक्ष’ थे अर्थात राम की आंखे कुछ-कुछ पीलिमा लिये हुयी थीं। ताम्राक्ष राम को धर्म, अर्थ एवं काम तत्वो का सम्यक ज्ञान था, वे अपनी आय वृद्धि के उपाय जानते थे, किंतु उनकी विशेषता यह थी कि वे वस्तुओ को संग्रहीत करने के साथ साथ उनका त्याग करना भी जानते थे। राम बिलकुल भी सुख के आसक्त एवं आलस्य करने वाले नहीं थे।
रघुकुल की उच्च शिक्षा
शिक्षा एवं शुद्ध परिमार्जित भाषा रघुकुल का प्रतीक है, वशिष्ठ एवं वामदेव जैसे गुरुओं के आशीष तले परंपरा में विकसित कुल परंपरा में शिक्षा पर बहुत जोर था I सभी सभी राजपुत्र उच्च शिक्षित, भाषा पर अधिकार रखने वाले श्रेष्ठ वक्ता थे, वाल्मीकि ने दशरथ की वाकपटुता को (“वाक्यं वाक्यमिदां श्रेष्ठं”) कह्ते हुये रेखांकित किया है तो वहीं राम भी वार्तालाप में अत्यंत निपुण, बल्कि वाक्पति थे (“उत्तरोत्तरयुक्तौ च वक्ता वाचस्पतिर्यथा”) I राम की विशेषता थी कि वे बात करते हुये मुहावरों या युक्तियों का प्रयोग कर अपने अंदाज को आकर्षक बना लेते थे, इतना ही नहीं, राम सभी अस्त्रों के विशारद, वेदों के सभी अङ्गो का यथार्थ ज्ञान रखने वाले विद्याव्रती स्नातक थे, साथ ही वे गीत-संगीत अर्थात गंधर्ववेद में भी दक्ष थे –
“देवासुर मनुष्याणां सर्वास्त्रेषु विशारदः
सम्यग विद्याव्रतस्नातो यथावत साङ्गवेद”
(अयोध्याकांड, २.३४)
राम को यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से बहुत लगाव था, तैत्तिरीय शाखा के आचार्यगण माता कौशल्या के प्रति स्नेह रखते थे, दंडकारण्य गमन के पहले, राम ने लक्ष्मण को निर्देश देकर तैत्तिरीय शाखा के आचार्यो के लिये वस्त्र, वाहन एवं जितने धन से वे संतुष्ट हों उतना धन उन्हे प्रदान करने की व्यवस्था करवायी थी। राम ने इसी तरह कठ एवं कालाप शाखा के स्वाध्यायी जो कि अन्य दूसरे शारीरिक कार्य करने में सक्षम नहीं थे तथा भिक्षा मांगने में भी आलसी थे, उनके लिये भी रत्नों से लदे अस्सी ऊंट तथा अन्य बहुत सी सामग्री, खासकर भद्रक नामक धान्य से लदे हुये दो सौ बैल अलग से प्रदान किये थे ।
वाल्मीकि का आकाश दर्शन
वाल्मीकि के समय में ज्योतिष का बहुत प्रचार था, उन्होने राम सहित सभी चारो भाइयो के ज्योतिषीय जन्म विवरण दिये हैं, यदि इसे अलग रखते हुये भी समीक्षा की जाय तो हम पाते हैं कित्रेता युग के उस चरण तक विश्वामित्र द्वारा दक्षिणी गोलार्ध के नये सप्तर्षि एवं नक्षत्र चक्र (सृजन दक्षिणमार्गस्थान् सप्तर्षीनपरान्) की खोज की जा चुकी थी – अर्थात विश्वामित्र, राम के लंका अभियान के पहले से ही दक्षिण भारत के भू-भाग एवं आकाशीय बिम्ब से परिचित थे । विश्वामित्र ने एक नक्षत्र का नाम राजा रघु के पूर्वज त्रिशंकु के नाम पर रख दिया था I
वाल्मीकि के अलावा स्वयं राम एवं जानकी भी ज्योतिष में निष्णात थे I राम ने लंका पर आक्रमण के सभी उपयुक्त नक्षत्र स्वयं चुने थे, किंतु कवि वाल्मीकि ने ज्योतिष द्वारा केवल भविष्य न देखकर, आकाश का अद्भुत सौंदर्य भी देखा है, वाल्मीकि ने लिखा है कि चित्रा नक्षत्र से संयुक्त चंद्रमा जितना शोभायमान होता है, उतने ही शोभायमान लाल चंदन का लेप लगाकर, जानकी के साथ बैठे हुये राम भी लगते थे । किष्किंधाकांड में राम ने भी शरद ऋतु के मनोहर चंद्रमा की प्रशंसा अनेक रूपकों के माध्यम से की है । सीता जी का अपहरण करने के भयानक दृष्य का वर्णन वाल्मीकि ने बुध ग्रह के रोहिणी नक्षत्र पर भ्रमण से उत्पन्न भयानकता से की है, यह सभी प्रयोग बताते हैं कि रामायण काल में ज्योतिष का पर्याप्त विकास हो चुका था –
“जगाह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव”
(अरण्यकांड, ५१.१६)
दशरथ ने पुनर्वसु नक्षत्र में राम को युवराज पद पर अभिषिक्त करने की घोषणा की थी, जिसके अगले दिन पुष्य़ नक्षत्र में चंद्रमा के आने पर युवराज बनाये जाते किंतु वैसा हो न सका और उन्हे राजधानी के स्थान पर चौदह वर्षो के लिये दंडकारण्य आवास दिया गया, लेकिन अक्सर हम भूल जाते हैं कि राम को राज्य से निष्कासित नहीं किया गया था ।
वस्त्र-विन्यास एवं अलंकरण
वाल्मीकि द्वारा अयोध्याकांड में अनेक स्थलों पर किये गये वर्णनों से ज्ञात होता है कि राम के समय धुले हुये श्वेत वस्त्र पहनने का चलन सबसे ज्यादा था । उस समय उत्सवों के दौरान क्षौम-वस्त्र पहनना अच्छा माना जाता था, एक तरह से कुलीनता का परिचायक हुआ करता था, राज्याभिषेक के अवसर पर माता कौशल्या एवं स्वयं राम ने तो क्षौम वस्त्र पहने ही थे, दासी मंथरा ने भी क्षौम वस्त्र ही पहने थे । दासी परिचारक होती है, रघुकुल में परिचारकों राजपरिवार के सदस्यों के समान वस्त्र पहनने की अनुमति दर्शाती है कि रघुकुल में छोटे बड़े का भेद नहीं किया जाता था ।
वस्त्रों से संबंधित एक अत्यंत मार्मिक प्रसंग वाल्मीकि रामायण में प्राप्त होता है, सीता जी उत्कृष्ट कौशेय वस्त्र धारण किया करती थीं किंतु दंडकारण्य प्रस्थान के अवसर पर उन्हे दो वल्कल चीर दिये गये थे, चीर अर्थात वृक्षों की छाल से निर्मित सादे वस्त्र, लेकिन सीता जी को वल्कल चीर पहनना नहीं आता था ऐसी स्थिति में सीता जी एक वल्कल गले में डालकर तथा दूसरे को हाथ में लिये हुये, चुपचाप स्तब्ध खडी रहीं, जिसे देखकर राम ने उन्हे वल्कल चीर बांधना सिखाया।
नवयुगल जानकी एवं राम, वाकाटक शिल्प

रघुकुल की चित्रकला
कालिदास ने राम की चित्रकला में रुचि के बारे में लिखा है, वे कहते हैं कि राम ने वनवास के दिनों की स्मृति में अंतःपुर में चित्र बनवाये थे किंतु भवभूति ने यह भी जोडा है कि वस्तुतः लक्ष्मण की देखरेख में इन चित्रों का चित्रण एक बडी दीवाल पर किया गया था जो कि भार तीय मुरल-चित्रकला (Mural Painting) का प्राचीनतम साक्ष्य है। भवभूति का चित्रण अत्यंत कोमल एवं मनोहारी है –
“ललितललितर्ज्योत्सना प्रायैर्कृत्रिम I विभृमैर्कृत मधुरैरङ्गानां मे कुतूहलमङ्गकैः”
वे कहते हैं कि शुक्लपक्ष की शीतल ज्योत्सना में इन चित्रों को देखकर दर्शक अपना होश खो बैठते थे क्योंकि उन्हे यह कृत्रिम चित्र जीवंत प्रतीत प्रतीत होते थे ।
रघुकुल में ‘गज वध’ का निषेध एवं प्रकृति संरक्षण के आयाम
राम की तरह भरत भी प्रकृति के प्रति संवेदना रखते थे, वे इस चिंता में कि कहीं राम की पर्णकुटी के आस-पास के वृक्षों को कोई हानि न पहुंचे (‘न हिंस्युरिति’), सेना पीछे रोककर, राम से मिलने अकेले ही चले आये थे । तब घरो में बेल, कैथ, कटहल, आंवला, बिजौर तथा आम के वृक्ष लगाये जाते थे I अयोध्या का राजचिह्म कोई दैवीय चिह्म न होकर, कोविदार (Bauhinia Purpurea) वृक्ष था, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि रघुकुल में प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति कितना अनुराग एवं जागृति रही होगी। लक्ष्मण ने भरत के रथ में कोविदार चिह्न देखकर दूर से ही अयोध्या की सेना को पहचान लिया था । कोविदार कचनार वृक्षों की एक प्रजाति है ।

कालिदास बताते हैं कि रघुकुल में जंगली हाथियों का शिकार वर्जित था, एक बार नर्मदा के किनारे ऐसे गज का सामना होने पर, राम के पितामह अज ने हल्के बाण का प्रयोग कर उन्मुक्त गजराज को छोड दिया था I वाल्मीकि लिखते हैं कि जब भरत राम से मिलने चित्रकूट आते हैं, तब राम उनका कुशल-क्षेम लेते हुये अयोध्या की सेना में हाथियों की संख्या पर्याप्त है या नहीं, इसके बारे में भी पूछ लेते हैं, राम को उनके मातुल ने शत्रुञ्जय नामक एक हाथी उपहार में प्रदान किया था, इन सब बातों से निष्कर्ष निकालता है कि राम के समय में हाथी पालने की प्रक्रिया अपने शुरूआती चरण में थी, चूंकि दंडकारण्य एवं लंका में रहने वाले राक्षसो की सेना में हाथी शामिल नहीं थे, एवं राम को भी कोशल से हाथी उपहार में मिला था, अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि कोशल या दक्षिण कोशल जिसके अन्तर्गत वर्तमान झारखंड एवं उत्तरी छत्तीसगढ का क्षेत्र आता है, हाथी को पालतू बनाने की प्रक्रिया वहीं शुरू हुई होगी तथा हाथियों के सामरिक महत्व की वजह से रघुकुल में जंगली हाथियों को न मारने की प्रशासनिक नीति बनाई गयी थी ।
जंगली हाथियों के लिए वाल्मीकि ने सामान्यतः ‘कुञ्जर’ शब्द का प्रयोग किया है, जबकि सेना में शामिल प्रशिक्षित हाथी के लिये ‘गज’ शब्द का, हालांकि हालांकि ऐसा कोई बाध्यकारी नियम नजर नहीं आता है । हाथी के लिये सामान्य शब्द ‘हस्ती’ है जिससे हिंदी का ‘हाथी’ निकला है। आगे चलकर सरस्वती सिंधु संस्कृति में हम पालतू हाथियों की बहुतायत पाते हैं, परम्परागत युग व्यवस्था के भीतर देखा जाये तो सरस्वती सिंधु संस्कृति द्वापर युग में विकसित हुई थी I हाथी का जो सामरिक उपयोग भारतीयों ने त्रेता में शुरू किया वह बीसवीं सदी में हुये द्वितीय विश्व युद्ध तक चलता रहा, संसार भर की सेनायें हाथी का प्रयोग युद्धों में किसी न किसी रूप में करती रही हैं ।
कालिदास की महीन दृष्टि से यह भी नहीं छूट सका कि मथुरा के समीप कालिदी यमुना भी तनिक धवल सी हो जाती हैI वाल्मीकि ने सुंदर कांड मे महानदी गंङ्गा में पोत अर्थात व्यापार के उद्देश्य से निर्मित दीर्घाकार नौकाओं द्वारा व्यापारिक सामग्री के परिवहन का वर्णन किया है, यथा (“महानदी प्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता”) जो कि प्राचीन भारतीय इतिहास में किया गया सर्वप्रथम उद्धरण है ।
रघुकुल युगीन कृषि
भारतीय पौराणिक एवं ऐतिह्य परम्परा के अनुसार त्रेता युग मे कृषि एवं यज्ञ की शुरुआत होती है, कृषि एवं यज्ञ त्रेता की दो लाक्षणिक विशेषतायें है, राम चूंकि त्रेता के अंतिम चरण में अवतरित हुये थे, इस समय तक धान की खेती शुरू हो जानी चाहिये थे, सौभाग्य से वाल्मीकि चावल अर्थात धान के खेती के अनेक उदाहरण देते हैं, जिनमे से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, नेवार धान (Oryza sativa Linn.) के अपने आप यहां वहां उग जाने का साक्ष्य, यह साक्ष्य कृषि के इतिहास में रुचि लेने वाले शोधकर्ताओ के लिये अति महत्वपूर्ण तो है ही परम्परानुसार युगो के कालक्रम की व्यवस्था की सत्यता को भी स्थापित करता है यदि हम ब्रह्मांडीय युगो की अवधि को हम मानवीय युगों की अवधि से अलग कर देखने का अभ्यास हम कर पायें ।
वाल्मीकि ने ‘समिधश्चैव सषर्पान्’ अर्थात समिधा के साथ सरसों का भी उल्लेख किया है जिससे पता चलता है कि रामायण काल में सरसों की खेती प्रारंभ हो चुकी थी जबकि कालिदास ने जैसा रघुवंश में लिखा है, उसके अनुसार पता चलता है कि इस समय तक उत्कल में लौंग तथा पांड्य प्रदेश में मसालों का उत्पादन शुरु हो चुका था. रामायण काल में उत्कल में लौंग तथा पांड्य प्रदेश में मसालों का उत्पादन शुरु हो चुका था I भरत जब सेना सहित चित्रकूट में स्थित राम-जानकी से मिलने के लिये निकले तब वाहनों मे बैठे सेनानियो को बार बार गन्ने के टुकडों के साथ शहद मिलाकर धान का लावा नाश्ते में खिलाया जा रहा था , जिससे ज्ञात होता है कि गन्ने की खेती प्रचुर मात्रा में की जा रही थी ।
रघुकुल की राजनीति एवं प्रशासनिक व्यवस्था
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में कौटिल्य द्वारा निर्मित अर्थशास्त्र राज्य शासन एवं अर्थ-व्यवस्था संबंधित न केवल भारत का बल्कि सारे विश्व का प्रथम वैज्ञानिक ग्रंथ है किंतु कौटिल्य के पूर्व भारतीय परम्परा में राजनीति, प्रशासन, वाणिज्य एवं अर्थव्यवस्था संबंधित चिंतन क्या था, इस विषय पर बहुत अधिक सामग्री अब तक नहीं खोजी गयी है, वैसे जब संसार वस्तु-विनिमय (Goods Exchange or Bartering) के आधार पर वाणिज्य कर रहा था, अर्थात गाय के बदले धान या धान के बदले औषधियों का लेन-देन किया करता था, तब भी भारत में करेंसी या मुद्रा थी, जिसके माध्यम से खरा व्यापार होता था। संसार में सबसे पहले मुद्रा की अवधारणा भारत में विकसित हुई है। कौटिल्य पूर्व का अर्थशास्तीय चिंतन हमें ऋग्वेद से ही मिलना शुरू होता है जिसका विकसित एवं समृद्ध संस्करण रामायण में प्राप्त होता है । शायद यह दो पैराग्राफ़ रामायण केअर्थशास्तीय चिंतन पर प्रकाश डालने का प्रथम प्रयास है।
अयोध्याकांड के 67वें सर्ग में शामिल मार्कंडेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतन और जाबालि महाशय के बीच राजा विहीन राज्य की दशा पर गहन चिंतन विमर्श हुआ है, जिसमें ‘नराजके जनपदे:’ पद से शुरू कर 20 श्लोको में ऐसे राज्य में आने वाले तरह-तरह के संकटों अर्थात अराजकता का तथा 100 वे सर्ग में चित्रकूट में हुये राम-भरत संवाद के 76 श्लोकों मे, राजा को किस प्रकार शासन करना चाहिये, उस आअदर्श शासन व्यवस्था की राम ने सविस्तार व्याख्या की है , इस प्रकार इन दोनों अध्यायों के कुल 96 श्लोक, भारतीय वाङ्ग्मय में राजनीति एवं प्रशासनिक व्यवस्था जिसे कौटिल्य ने अर्थशास्त्र का नाम दिया है, उस अर्थशास्त्र के ‘प्रथम सिद्धांत” का निर्माण करते है, इन श्लोको को इसी गौरव के साथ पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिये।
वेतन एवं भत्तों की व्यवस्था
रघुकुल ने सैनिकों हेतु उचित वेतन एवं भत्तों की व्यवस्था “बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम्” की थी, जब भरत राम से मिलने चित्रकूट आये तब राम ने वेतन व्यवस्था के सुचारू होने या न होने पर प्रश्न पूछा था, कालिदास ने इस संबंध में आगे जोडा है कि कुश के पश्चात हुये अयोध्या के राजाओ मे राजा अतिथि सबसे प्रतापी, शौर्यशाली तथा नीतिज्ञ हुआ, जिसने समय सारणी बनाकर राजकर्मियों से दायित्व निर्वहन कराना शुरु किया था I उन्होने भरत को प्रजा से उग्रतापूर्वक अधिक कर न वसूल करने की सलाह भी दी थी, उन्होने यह भी पूछा था कि क्या भरत योग्यतानुसार ही राज्यकर्मियों को नियुक्त कर पा रहे हैं अर्थात – प्रधान को प्रधान पद पर, मध्यम को मध्यम पद पर तथा कम योग्यता रखने वालों को कम जिम्मेदारी के पदों पर ।
अयोध्याकांड के 67वें सर्ग में शामिल मार्कंडेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन, गौतन और जाबालि महशय के बीच राजा विहीन राज्य की दशा पर गहन चिंतन विमर्श हुआ है, जिसमें ‘नराजके जनपदे:’ पद से शुरू कर 20 श्लोको में राजा विहीन राज्य में किस तरह अनेक संकट खडे हो जाते हैं वह तथा अयोध्याकांड के ही 100 वे सर्ग में चित्रकूट में हुये राम-भरत संवाद के 76 श्लोक, जिनमें राजा को किस प्रकार शासन करना चाहिये इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, इन दोनों अध्यायों के 96 श्लोक, भारतीय वाङ्ग्मय में राजनीति एवं प्रशासनिक व्यवस्था की ‘प्रथम सैद्धांतिक विवेचना’ है ।