बालाथल का योगी: विश्व में योग- साधना का प्राचीनतम् प्रमाण
पतंजलि पूर्व योग का पुरातात्विक इतिहास
लेखक – ललित मिश्र, संस्थापक एवं अध्यक्ष, इंडोलोजी फ़ाउंडेशन
दिनांक: 03 जुलाई 2022
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भगीरथ प्रयास के फ़लस्वरूप 11 दिसंबर 2014 के दिन, संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली ने योग के बहुआयामी लाभ देखते हुये, प्रस्ताव नंबर 69/131 के द्वारा 21 जून, 2015 से अंतराष्ट्रीय योग दिवस मनाने की शुरुआत की, तब से भारतीय योग वैश्विक योग बन चुका है जिसे सेकुलर एवं गैर-सेकुलर सभी तरह के देशों में मनाया जाता है ।
वैश्विक प्रसार होने के बवजूद, भारत में योग का प्रमाणिक इतिहास अब तक लिखा नहीं गया, लिखित इतिहास के अभाव में योग के भारतीय मूल को पश्चिम के महत्वाकांक्षी अभ्यासियों द्वारा पिछले दशकों में कई बार चुनौती दी गयी है । हाल ही में पतंजलि द्वारा परिभाषित अधोमुखासन को ‘Downward Dog Posture’ नाम देकर, उसे पश्चिम की आधुनिक देन के रूप में स्थापित करने का प्रयास जोर – शोर से किया गया। सामान्यतः योग की शुरुआत मुनि पतंजलि द्वारा लिखित योग-सूत्र के साथ मानी जाती है । पतंजलि पुष्यमित्र शुंग (185 – 149 ई॰पू॰) के शासनकाल में हुये योग एवं व्याकरण के आचार्य थे, किंतु पुरातात्विक दृष्टि से देखा जाये तो योगसाधना के पुरातात्विक प्रमाण पतंजलि से बहुत पहले हड़प्पा कालखंड से मिलने शुरू होते हैं, हड़प्पा उत्खनन में योग से संबंधित दो प्रकार की सामग्री प्राप्त होती है, एक योगासनारूढ पशुपति जिनका अंकन एक सील में देखा जाता है तथा दूसरा मिट्टी (Terracotta) से निर्मित योग-मुद्राओ को प्रदर्शित करने वाले छोटे छोटे माडल । वस्तुतः हड़प्पा कालखंड योग के विकास का प्रतिबिंब है, शुरुआत का नहीं, योग की शुरुआत हड़प्पा कालखंड से पहले हुई होगी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अभाव में James Mallinson एवं Mark Singleton ने 2017 में पेंग्विन द्वारा प्रकाशित किताब ‘Roots of Yoga’ में यद्द्पि दर्शाया है कि स्केंडिनेवियन देशों में प्रचलित जिम्नास्टिक भारतीय योगासनों से प्रेरित पश्चिमीकरण का एक स्वरूप है, तथापि उन्होने भारतीय योग की प्राचीनता अस्वीकार करते हुये* लिख दिया है कि “But it is entirely speculative to claim, as several popular writers on yoga have done, that the Vedic corpus provides any evidence of systematic yoga practice”. यदि भारतीय़ लेखक योग का इतिहास नहीं लिखेंगे तो इस तरह की भ्रांतियां एवं अफ़वाहें बार बार उठती ही रहेंगी ।

सर जान मार्शल, जिनके कार्यकाल में हड़प्पा उत्खनन संपन्न हुआ, उन्होने पशुपति सील के महत्व को आंकने का श्रेय एक अन्य पुरातत्वविद अर्नस्ट मकाया को दिया है । जिसके अनुसार इस सील में अंकित आकृति ‘महायोगी’ की है । जान मार्शल को किसी तरह का कोई संदेह नहीं रहा कि हडप्पा संस्कृति में योग साधना की जाती थी, उनकी किताब “MOHENJO-DARO AND THE INDUS CIVILIZATION (1931)” के पृष्ठ 52 में वे पशुपति सील में उकेरे गये देवता के बारे मे जान मार्शल ने स्प्ष्ट किया है कि – ‘The God, who is three-faced, is seated on a low Indian throne in a typical attitude of Yoga, with legs bent double beneath him, heel to heel, and toes turned downwards.- His arms are outstretched, his hands, with thumbs to front, renting on his knees’. जान-मार्शल ने आगे के पृष्ठों में विस्तृत व्याख्या की है कि क्यों इस सील की आकृति की पहचान रुद्र या शिव के रूप में की जानी चाहिये, देखिये – ‘Rudra, the Vedic God, whose cult was amalgamated and identified with that of Siva, also bore the title of Pashupati, and this may conceivably have been one of the reasons for identifying him with Siva’.

जया मेनन द्वारा NCERT टेक्स्टबुक में योग के इतिहास का विद्रूपण (Distortion)
NCERT की ‘Class 12’ की इतिहास की टेक्स्ट बुक ‘Theme One’ लिखने के लिये, एएमयू की एसोसियेट प्रोफ़ेसर जया मेनन को बुलाया गया, जिसने पशुपति सील पर अंकित ‘पशुपति’ को परंपरागत ‘वैदिक पशुपति’ से अलग कर ‘शमन पशुपति’ होने का दावा कर दिया है। जया मेनन ने ‘शमन पशुपति’ पर कभी कोई रिसर्च पेपर नहीं लिखा था। इस तरह के अनर्गल दावे करते हुये जया मेनन यह नहीं बता सकीं कि किस आधार पर वे ‘शमन संप्रदाय’ को हड़प्पा कालीन सील से जोडने का प्रयास करती हैं, एवं वे उन तथाकथित ‘Some Scholars’ के नाम एवं उनके रिसर्च पेपर्स का संदर्भ भी नहीं दे पाती हैं।
जया मेनन ने ऐसा दावा किया है, देखिये – “Rudra in the Rigveda is neither depicted as Pashupati (lord of animals in general and cattle in particular), nor as a yogi. In other words, this depiction does not match the description of Rudra in the Rigveda. If this, then, possibly a shaman as some scholars have suggested?”
जया मेनन के उपरोक्त दावे के बिलकुल विपरीत, ऋग्वेद के सूक्त 1.114 के रचयिता ऋषि कुत्स आंगिरस इस सूक्त के पहले मंत्र में ही दो एवं चार पैर वाले सभी जीवो एवं पशुओं की रक्षा हेतु रुद्र का अह्वान करते हैं, यथा – ‘शमस॑द्द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑’ जबकि इसी सूक्त के आठवें मंत्र में वे गायो एवं अश्वों की रक्षा हेतु रुद्र से अलग से एक बार और प्रार्थना करते हैं, यथा – ‘नो॒ गोषु॒ मा नो॒ अश्वे॑षु रीरिषः’ एवं नवें मंत्र में ऋषि ने आगे स्पष्ट किया है कि उनकी प्रार्थना एक पशुपालक की प्रार्थना है, यथा -‘उप॑ ते॒ स्तोमा॑न्पशु॒पा इ॒वाक॑रं॒’ । इन साक्ष्यों की रोशनी में साफ़ हो जाता है कि जया मेनन ने तथ्य से उलट बिलकुल गलत लिखा है, किंतु दुर्भाग्य से भारतीय विद्यार्थी पिछले पंद्रह वर्षो से इसी गलत इतिहास को पढकर अपनी समझ विकसित कर रहे हैं ।
एक पुरातत्वविद की भविष्य़वाणी (Prophesy)
वावास्तव में मोहेनजो-दरो उत्खनन में, पशुपति शिव से संबंधित सील एवं नमस्ते-योग दर्शाने वाले माडल मिलने के भी पहले, उत्तरीय दुशाला पहने हुये राज-पुरोहित की प्रतिमा का परीक्षण भारतीय पुरातत्वविद राय बहादुर रामप्रसाद चंद ने किया था, उन्होने देखा था कि राज-पुरोहित (Priest King) नाम से प्रसिद्ध प्रतिमा की दोनों आंखें आधी ही खुली हुई हैं तथा वे दोनों आंखे राज-पुरोहित की नाक के नुकीले बिंदु पर किसी योगी की तरह ध्यान केंद्रित करती हुई लग रही हैं । इस अवलोकन के आधार पर उन्होने हडप्पा संस्कृति में आसन एवं ध्यान अर्थात योग-साधना का अभ्यास किये जाने की संभावना व्यक्त की जो आगे चल कर एक भविष्यवाणी (Prophesy) की तरह सच साबित हुयी । जान मार्शल को यह बात पता थी, जब ‘पशुपति शिव’ वाली सील एवं ‘नमस्ते-योग’ माडल मिल गये तब रामप्रसाद चंद के परीक्षण की पुष्टि हो गयी। यह इतनी बडी घटना थी जिसकी रोशनी में भारतीय इतिहास लिखा जाना चाहिये था किंतु आगे आने वाले भारतीय पुरातत्विदो एवं इतिहासकारो ने इस घटना की पूर्ण उपेक्षा की । जान मार्शल ने राय बहादुर रामप्रसाद चंद के अध्ययन-परीक्षण एवं उसके सच निकलने के बारे में अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ 52 में लिखा है ।

इन समस्त साक्ष्यों की रोशनी में भारतीय पुरातत्चविदों को ऐसा कोई अवसर नहीं मिलता कि वे हडप्पा संस्कृति को योगसाधना की परंपरा से अलग कर सकें। तथापि साक्ष्यों को छुपा कर ऐसे प्रयास किये गये हैं, इतिहास से इस तरह की छेडछाड (Tampering) करना भारत में बहुत आसान रहा है ।
योग की उत्पत्ति मध्य-नवपाषाण काल (लगभग 4000 BCE) में
लेखक के विचार में योग का प्रारंभ हड़प्पा कालखंड के पूर्व, संभवतः मध्य-नवपाषाण युग में हुआ होगा, नव-पाषाण युग में मनुष्य ने पशुओ को पालतू बना लिया था, तथा वे पशु भी, जिन्हे पालतू नहीं बनाया जा सका था, वे भी मनुष्य के करीबी संपर्क में ही थे, इसी दौरान मानव ने पशुओ की शारीरिक संरचना एवं व्यवहार का अध्ययन किया होगा ।
हड़प्पा कालखंड के समानांतर ऋग्वैदिक कालखंड से हमें योग दर्शन को व्यक्त करने वाले शाब्दिक साक्ष्य मिलने शुरू हो जाते है उदाहरण के तौर पर ऋग्वेदीय ऋषि मेधातिथि काण्व निम्नलिखित मंत्र में ध्यान एवं योग के महत्व को उद्द्यम (यज्ञ) की सफ़लता के पैमाने पर परखते हैं –
“यस्मा॑दृ॒ते न सिध्य॑ति य॒ज्ञो वि॑प॒श्चित॑श्च॒न। स धी॒नां योग॑मिन्वति” (ऋग्वेद, 1.18.7)
अर्थात जिनकी सहायता के बिना दूरदर्शी एवं सचेत विद्वानों का यज्ञ भी सिद्ध नहीं होता। वह हमारी मेधा को योग की ओर प्रेरित करता है। यजुर्वेद में प्राणायाम के दौरान नियंत्रित किये जाने वाले प्राण एवं उदान वायु का उल्लेख मिलता है –
“प्राणाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व व्यानाय मे वर्चादा वर्चसे
पवस्व उदानाय मे वर्चादा वर्चसे पवस्व वाचे मे वर्चादा” ।
(यजुर्वेद, 7.27)
पुरातत्व एवं वेदों के अलावा, पतंजलि से पूर्व लिखे गये महाभारत एवं उपनिषदों में प्राणायाम सहित योगाभ्यास किये जाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है श्वेताश्वर उपनिषद का यह उदाहरण –
ते ध्यानयोगानुगताः अपश्यन् देवात्मशक्तिम् स्वगुणैः निगूढाम् ।
यः एकः कालात्मयुक्तानि निखिलानि तानि कारणानि अधितिष्ठति॥ (श्वेताश्वर उपनिषद, 1.3)
अर्थात ऋषियों ने एकाग्रचित्त होकर ध्यान-योग में उस दैवीय आत्मशक्ति को देखा जो उनके अपने गुणों में छिपी हुई थी। यही वह वही शक्ति है जो जीव (life of living being) एवं काल (age) को संयुक्त करती है तथा समस्त जीव द्वारा किये गये ऐच्छिक एवं अनैच्छिक सभी कार्य, संस्कार, एवं प्रारब्ध के पीछे आधारभूत सभी कारणों की अधिपति (lordship) होकर शरीर में स्थित रहती है। इस आत्मशक्ति द्वारा जीवन की व्यवस्था होती है, जब तक आत्मशक्ति सक्रिय रहती है तब तक जीवन चलता है ।
पतंजलि पूर्व महाभारत युग में याज्ञवल्क्य एवं मुनि जैमिनी के शिष्य हिरण्यनाभ ने योग-साधना में महारत हाशिल की थी, याज्ञवल्क्य ने योग-विज्ञान पर “योगयाज्ञवल्क्य” के नाम से एक ग्रंथ भी लिखा था । सूर्यवंश के पौराणिक इतिहास में ऐसी मान्यता है कि योगसिद्ध सूर्यवंशी राजा मरु अब भी कलाप नामक ग्राम में तपस्यारत है, राजा मरु के द्वारा भविष्य में पुनः सूर्यवंश का पुनरुत्थान होगा ।
बालाथल का योगी
जीवित मनुष्य द्वारा योग-साधना करने का सर्वप्रथम साक्ष्य राजस्थान के उदयपुर जिला मुख्यालय से 42 किमी दूर बालाथल Excavation के दौरान प्राप्त होता है.. । यह साक्ष्य एक समाधिस्थ योगी के कंकाल (Skeletal) के रूप में प्राप्त होता है, जो कि योग साधना का अब तक का सबसे पुराना साक्ष्य है ।
बालाथल एवं हडप्पा का ऐतिहासिक संबंध
बालाथल का योगी मुनि पतंजलि एवं भगवान बुद्ध से भी अधिक पुराना है। यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बालाथल का योगी एवं मोहेनजो-दरो की सील में उकेरे गये पशुपति, दोनों ही योग की चिन-मुद्रा एवं सिद्धासन में ध्यानमग्न हैं। दोनों की हथेलियां नीचे झुकी हुई हैं तथा हथेलियां, भूमि की ओर अधोमुखी स्थिति में रखी गयी हैं, अर्थात बालाथल का योगी मोहेनजो-दरो के पशुपति की योगमुद्रा का ही अनुपालन कर रहा है । इस साक्ष्य से इस बात की पुष्टि होती है कि हडपा के नगरों के अवसान के बाद भी हडप्पा संस्कृति की धारा भारत में लगातार बिना रुके बहती रही। ह्डप्पा का योग, बालाथल का योग, याज्ञवल्क्य का योग एवं पतंजलि का योग सभी एक ही योग परंपरा के अलग-अलग पड़ाव हैं ।

बालाथल शुरू से सनातन वैदिक संस्कृति का अङ्ग रहा है, जिसका प्रमाण यहां बनाये गये ‘यू’-आकार चूल्हों के रूप में मिलता है,‘यू’-आकार के चूल्हे भारतीय संस्कृति की विशेष पहचान है, ऐसे चूल्हे मध्य एसिया या यूरोप में प्राप्त नहीं होते हैं । बालाथल के योगी के पश्चात, भगवान बुद्ध अधिकांश प्रतिमाओं में पद्मासन की मुद्रा में ध्यानस्थ पाये जाते हैं, जिससे पता चलता है कि भगवान बुद्ध भी योग साधना किया करते थे । इस तरह नव-पाषण युग से शुरु हुआ योग इक्कीसवीं सदी तक अबाध चला रहा है, योग सनातन है ।

